Thursday, December 30, 2010

नूतन पथ की ओर

नूतन पथ की ओर
                 मीना जैन
नव वर्ष स्वागत तुम्हारा
भाव प्रसून की पंखुरियों से
अभिनंदन नये दशक का
विनयशील की अंजुरियों से
हर्ष पताकाएँ फहरा कर
बाँधे हैं हमने वंदन वार
नभ पर उदित नूतन दिनमान
नूतन का स्वागत फिर एक बार
नूतन संदेश सुनाती भोर नई
सजने लगीं हैं नई दिशाएँ
अरुण रश्मियाँ लिख रहीं
उन्नयन की नूतन विधाएँ
नई आशा, नई ऊर्जा, चेतना
नव उमंग, नव विश्वास लिये
बढ़ चलें नूतन पथ की ओर
नव स्फूर्ति, नव उल्लास लिये ।

Sunday, November 21, 2010

गंगाजी के तट पर

गंगाजी के तट पर

गंगाजी के तट पर आस्था का संगम
गंगाजी के तट पर भक्ति की सरगम
गंगाजी के तट पर शिव संकीर्तन
गंगाजी के तट पर महिमा गायन
गंगाजी के तट पर सत्संग-गोष्ठी
गंगाजी के तट पर पंच परमेष्ठी
गंगाजी के तट पर उज्ज्वल रेती
गंगाजी के तट पर भाव के मोती
गंगाजी के तट पर शीत समीरण
गंगाजी के तट पे मिटे उत्पीड़न
गंगाजी के तट पर संध्या आरती
गंगाजी की महिमा गाये सरस्वती
गंगाजी की लहरों पे दीपक तिरते
गागाजी के  तट पर संत विचरते
गंगा देवनदी, जाह्नवी, सुर सरिता
लहर-लहर पर श्लोक और कविता
गंगाजी के तट पर लगते मेले
गंगाजी के तट पर दुनिया भूले
गंगाजी के तट की छवि निराली
गंगाजी के तट पे सदा हरियाली
गंगाजी की लहरें प्राण-प्रदायिनी
गंगा पतित पावनी, मोक्षदायिनी
गंगाजी के तट पर तीरथ सारे
गंगाजी के तट पे मनोरथ पूरे
हो भव्य प्रयास भागीरथ जैसा
उतरे संकल्प  सुरसरि सरीखा
सींचे सकल भुवन को गंगा
समाये हृदय कलश में गंगा
पावन दर्पण गंगा दर्शन
गंगा करती शीतल तन-मन
कानों में गंगा की कल-कल ध्वनि हो
नयनों में गंगा की छल-छल छवि हो
उर में हो गंगा की स्तुति स्मरण
मुख से गंगाजी की जय उच्चारण
पुण्य सलिला गंगा की धारा
मिटाती कष्ट कलुष ये सारा
अंत समय मिले गंगा वारि
गंगा मैया मोहि लेना उबारि ।


Thursday, November 18, 2010

मैंने प्यार किया

मैंने प्यार किया
मैंने प्यार किया
शिशु की कोमल सुस्कान से
निर्मल निष्पाप दृष्टि ने
मिटा दी थकान तन-मन की!
मैंने प्यार किया
वात्सल्यमयी माँ के आँचल से
जिसके नीचे निश्चिंत सदा ही
सारी खुशियाँ बचपन की!
मैंने प्यार किया
फूल की कोमन पंखुरियों से
जिनके संस्पर्श से जागी
नूतन चेतना जीवन की!
मैंने प्यार किया
नभ पर उड़ते जलधर से
जिसने बरसाकर जल की बूँदें
प्यास बुझा दी धरणी की!
मैंने प्यार किया
ऊँचे शैल शिखर से
प्रेरणा स्त्रोत रहा सदा जो
राह दिखाई उन्नयन की!
मैंने प्यार किया
सहृदय मित्रों से
जिन्होंने सुख-दुख में साथ दिया
निभाई आन मित्रता की!
मैंने प्यार किया
श्रेष्ठतम शब्द संपदा से
जिसने विचारों को नई दिशा दी
समझा दी बात संचेतन की!
मैंने प्यार किया
संतों की शीतल वाणी से
जिनके सान्निध्य से मिलती
सुरभि और शीतलता चंदन की!
मैंने प्यार किया
आत्म-तत्व के वैभव से
जिसने अनश्वर का भेद बताया
छवि दिखाई संपूरन की!
मैंने प्यार किया
प्रेम की स्निग्ध भावनाओं से
जिसने जन-जन को मीत बनाया
लागी लगन प्रिय से मिलन की!




संदेसा तेरे नाम का

संदेसा तेरे नाम का

संदेसा तेरे नाम का
जब भी आया मेरे द्वारे
खिल-खिल उठी मन की कली
लाज से हुये नयन रतनारे
लेकर जो आया संदेसा
लगा उस पल बड़ा ही अपना
उस पल की अनुभूति ऐसी
सच हो जैसे भोर का सपना!
विरह की ज्वाला होती कैसी
कैसे मैं तुमको समझाऊँ
कितने ताप सहे उर ने
शायद किसी से कह न पाऊँ!
संदेश के एक-एक अक्षर में
होती तुम्हारी छवि उजागर
खो जाती मैं शब्द-पाश में
सारे जग को विसराकर!
प्रतीक्षा की घड़ियों में प्रियवर
रही प्रतीक्षा सुधि लेने की
संदेसे की भी बाट जोहती
प्रीत की रीत है केवल देने की!
देहरी पर आस का दीप जलाए
सजाती भावनाओं की रंगोली
हर आहट पर कान लगाए
सुनती सखियों की चुहल, ठिठोली!
प्रीत की डोरी कितनी कोमल
इसको भी जान लिया मैंने
प्रीत के मोती कितने अनमोल
इसको भी मान लिया मैंने!
प्रीत की माला रखी सहेजकर
उर के कंचन कोष में
मणियों में संदेश है अंकित
रिक्तता नहीं प्रीत के राहत कोष में!
समय! तुमसे क्या करूँ विनती
तुम तो संदेश सुनाते चलते रहने का
पल-पल, छिन-छिन कहते जाते
बीता न कभी वापस आने का!
पल-पल कटते जीवन में
पल-पल सौंदर्य रहे सुशोभित
क्षण-क्षण क्षय होते जग में
सद्भावना संदेश करें संप्रेषित!
अनगिन घड़ियों में एक घड़ी
संदेसा लाएगी अंतिम श्वास का
इस परम सत्य से अनभिज्ञ नहीं
भरोसा नहीं अगले निश्वास का!
समय! संदेसा तुम पहुँचा देना
मेरे प्रियतम, प्रियरूप, प्रियवर को
जीवन दीप की लौ रही समर्पित
महामिलन विराट ज्योतीश्वर से हो!

रहे स्मरण प्रतिपल प्रभु का
जिसका संदेसा सृष्टि सुनाती
सुख-दुख के संदेसे समरूप
मैं तो प्रभुवर जी के रंगराती।







Saturday, October 9, 2010

আসরে-আসরে আগমনী গান

আসরে-আসরে আগমনী গান



বইতেছে শরদের স্নিগ্ধ বাতাস
ছড়িএছে চতুর্দিক কত উল্লাস
আসরে-আসরে আগমনী গান
আনংদে ভরা  শুভ্র নীলাকাশ.....
অভিনংদন মা শারদের সুপ্রভাতে
উদবোধন উদঘোশ উশা বেলাতে
মুদিত মংগল ঘট সাজাইতে
সুগংধ সুমন লইয়া দূ হাথে
নমন করি মা তব শ্রীচরনে
অংতরে ভরে উঠেছে প্রকাশ.....
আনংদিত ইংদিরা পুরম বাসীরা
মাএর বংদনে আল্হাদিত ঢাকীরা
সুশোভন আলপনা সাজায় সখিরা
সদ্ভাবের সুর সাধিল সাথীরা
সংকল্পের শুভ দীপ জালাইয়া
প্রারংভ হল প্রগতির সত্প্রয়াস.....
বাত্সল্যময়ী মা বরদায়িনী
শুভদা, সুখদা শাংতিদায়িনী
বংদন,আরাধন করি মা স্তবন
কল্যান কর মা করুনাদায়িনী
নিজ কৃপা রাখ ভকতবত্সলা
হর মা তুমি সংসারের ত্রাস... 


Wednesday, October 6, 2010

प्रीत की अभिव्यक्तियाँ

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प्रीत की अभिव्यक्तियाँ

शब्दावली पर आश्रित रहीं कब
प्रीत  की  अभिव्यक्तियाँ !
नयन कह जाते प्रीत की भाषा
लगीं हों चाहे कितनी पाबंदियाँ !
भरी सभा के बीच चुहल सुन
बिहारी की नायिका लजियाती
लाज  भरे  लोचन से  लाजो
अनकहा बहुत कुछ कह जाती !
कवि ने मेघदूत रच डाला
बादल ले चले प्रेम संदेस
हवाओं में सुरभि प्रीत की
बही जो सीमा पार विदेस !
चातक  सा  प्यासा  प्रेमी
इत-उत उड़ता  आकुल-व्याकुल
स्वाति की बूँद मिल जाती
स्वत: खिल जाते मन के वकुल!
मुकुल, पुष्प, पल्लव, द्रुम, लताएँ
भँवरे, तितली, शुक, काग, कपोती
प्रेमियों  का  मन  जीता  सबने
पहुँचाई  प्रिय को  प्रिय की पाती!
पद्मावती  की  प्रेम-कथा में
हीरामन शुक की मुख्य भूमिका
प्रेम से परमेश्वर मिल जाता
वहाँ न कोई  काम  अहम् का!
अनोखी  प्रेम  की दुनिया
निराली इसकी अभिव्यक्तियाँ
धरा-गगन के बीच प्रकृति
हँस-हँस करती  अठखेलियाँ
त्वरित संचार हो या सबकुछ
पल में ध्वस्त हो जाये
प्रेम की भावना शाश्वत जग में
कोई न इसे मिटा पाये ।

महानगर में बसंत

महानगर में बसंत

कैसे करूँ स्वागत बसंत
पर्यावरण धूल भरा है
कंक्रीट के इस जंगल में
धुँए का बादल पसरा है!
मीलों मील चलती हूँ
फुलवारी तो दिखती नहीं
पार्क में लगतीं योग कक्षाएँ
हरी दूब भी उगती नहीं!
फूलों के चित्र किताबों में हैं
बच्चे जिनमें भरते हैं रंग
पूछते, अमलतास कहाँ है?
ढूँढते रहते हम उनके संग !
महानगर की भीड़ में
बसंत के लिये जगह कहाँ
शहरीकरण  के दौर में
प्रकृतिकरण पर जोर कहाँ !
पेड़, पक्षी, फूलों की बातें
बसंत की बासंती सौगातें
शायद मिल जाएँ पहाड़ों पर
पर्यटक जहाँ सैर को जाते
मेरे घर के आँगन में
बसंत एक बार आ जाना
गेंदा, गुलाब, गुलमोहर का
स्निग्ध सौंदर्य छिटका जाना!

पहाड़ पर

पहाड़ पर
भूल  नहीं  पाती
पहाड़ पर  बितायी  एक शाम
घाटियों में घिरती धुंध
हवाओं पर लिखा तुम्हारा नाम......
दूर-दूर तक फैला
हरियाला  आँचल
कल्पना लोक में उड़ चला
मन पाखी चंचल
पहाड़ से उतर आई
लेकर  पहाड़  की  यादें तमाम......
आँखों  में  बसी हैं
पहाड़  की  ऊँची चोटियाँ
खुशबू से महकती घाटियाँ
घुमावदार  पगडंडियाँ
पहाड़ का खुशनुमा मौसम
जोड़ता  कितने  रिश्ते  अनाम......
पहाड़ की धूप चटकीली

लगे साँझ दीवाली सी

सड़कें सैलानियों से गुलजार

बर्फीले मौसम में खाली सी

झरने  बहते-बहते  कहते

कितनी कहानियाँ गुमनाम......।

जाना उस देश

पवन!
तुम  जाना  उस  देश
जहाँ रहता  मेरी गोदी का  लाल
आशीष सजाना उसके शुभ्र ललाट पर
कहन! तुम बिन माँ-बाबू कंगाल!
पवन!
नि:शब्द   झरोखे   से   जाना
मेरी वृद्धा माँ की खाट के पास
कहना! मजे में है तुम्हारी बिटिया
बापू को याद कर न हो उदास!
पवन!
तुम  चित्रकार  के  घर  जाना
कहना!  एक ऐसा चित्र बनायें
जिसमें दिखे अपने स्वप्नों की छवि
जिसे देख-देख कर नयन जुड़ायें!
पवन!
शिल्पी  के  द्वार  पर  जाना
कहना! ऐसा सुंदर एक भवन बनायें
जिसमें माता-पिता, परिवार का हो स्थान
कई पीढियाँ प्रेम से जिसमें रह जायें!
पवन!
तुम जाना न्यायाधीश के बंगले पर
पूछना! जिन पर होता प्रतिदिन अन्याय
जो नहीं जानते अर्जी लिखना,मुकदमा लड़ना
क्या किसी उपाय; मिल सकता उनको न्याय ?
पवन!
सहलाना गुलाब की पँखुरियों को
भीनी सी खुशबू समेट कर लाना
खिलौना टूटने पर रोया था जो अभी-अभी
उस बालक की  साँसों में सुगंधि भर देना........!


चलना होगा साथ-साथ

चलना होगा साथ-साथ

                  
रहते हों चाहे किसी देश में
आवश्यकताएँ सबकी एक हैं
बोलते हों चाहे कोई भाषा-बोली
अभिव्यक्ति भावनाओं की एक है....
बँटी हुई है धरती, देश-प्रदेश में
दिखते लोग अलग-अलग वेश में
भिन्नता हो चाहे जितनी
लहू का रंग सबका एक है......
उत्पीड़न सहना पड़ता, जाति-धर्म, रंग-भेद पर
बड़े-बड़े विवाद गहराते, आपसी मतभेद पर
विसंगतियाँ हों चाहे जितनी,
संवेदना का स्वर तो एक है.....
त्वरित संचार, अंतर्जाल ने
जोड़ने का प्रयास किया सबको
सबके मन में प्रेम जगा दे
ऐसा मंत्र खोजना होगा हमको
सुख के क्षण सबको भाते
दुख भी सबका एक है.......
मानवता की एक परिभाषा
विचारों की विस्तृत धरा पर
व्यापक दृष्टिकोण अपनायें
संकीर्णता को दूर कर
रहे परस्पर सौहार्द
विश्व मैत्री का सूत्र केवल एक है.....
हो सबका विकास, सबका उत्कर्ष
मानव सभी समान हैं
सबका सहयोग, सुप्रीति, सुनीति
शांति के संधान हैं
देश हों चाहे अलग-अलग
विश्व मंच तो एक है.......
एक ध्येय को सामने रख
चलना होगा साथ-साथ
स्वार्थ से ऊपर उठकर
देखना होगा वैश्विक परमार्थ
विषमताएँ चाहे जितनी हों
समता का लक्ष्य तो एक है 






शब्द

शब्द



शब्दों की महिमा अपार

शब्दों से बनते विचार

शब्दों से बनता शब्द-कोश

शब्दों से बनता तुमुल घोष

शब्द बनते माध्यम संप्रेषण का

शब्द सुनाते गीत सृजन का

शब्द बनाते अरि को भी मीत

शब्द मिटाते बरसों की प्रीत

शब्दों से कोई बड़बोला बन जाता

शब्दों से कोई मिठबोला बन जाता

शब्द सुनकर ही उपजे ज्ञान

शब्दों से बनती अपनी पहचान

शब्दों से बनता है साहित्य

शब्दों का विनिमय होता नित्य

शिशु के शब्दों से माँ होती प्रमुदित

वात्सल्य उमड़ता,होती सृष्टि आनंदित

शब्द प्रेम का मन के तारों को सहलाए

शब्द स्नेह का बूढ़े मन को भी बहलाए

संबंध बनते शब्दों के ताल-मेल से

रिश्ते कटु हो जाते,शब्दों के अनमेल से

संवेदना के शब्द मन की व्यथा मिटाये

शब्दों के तीर हृदय को छलनी कर जाये

       श्री महावीर जी के शब्दों ने अलख जगाया

सदियाँ बीतीं पर कोई उनको भूल न पाया

समय शिला पर शब्द लिखते इतिहास

हर मौसम,हर उत्सव में शब्दों का उल्लास

मानस को प्लावित करती शब्दों की धारा

शब्द बिना है अर्थ हीन जीवन सारा

शब्द ठहर जब जाते हैं

सभी सहमे से रह जाते हैं

जिनके पास न शब्दों का संसार है

सूनी है उनकी दुनिया, वह वेवस, लाचार है

शब्द संपदा है अनमोल, व्यर्थ इसे गँवाना

तोल-तोल कर बोलना, शब्द-शब्द सँवारना……