Thursday, November 18, 2010

संदेसा तेरे नाम का

संदेसा तेरे नाम का

संदेसा तेरे नाम का
जब भी आया मेरे द्वारे
खिल-खिल उठी मन की कली
लाज से हुये नयन रतनारे
लेकर जो आया संदेसा
लगा उस पल बड़ा ही अपना
उस पल की अनुभूति ऐसी
सच हो जैसे भोर का सपना!
विरह की ज्वाला होती कैसी
कैसे मैं तुमको समझाऊँ
कितने ताप सहे उर ने
शायद किसी से कह न पाऊँ!
संदेश के एक-एक अक्षर में
होती तुम्हारी छवि उजागर
खो जाती मैं शब्द-पाश में
सारे जग को विसराकर!
प्रतीक्षा की घड़ियों में प्रियवर
रही प्रतीक्षा सुधि लेने की
संदेसे की भी बाट जोहती
प्रीत की रीत है केवल देने की!
देहरी पर आस का दीप जलाए
सजाती भावनाओं की रंगोली
हर आहट पर कान लगाए
सुनती सखियों की चुहल, ठिठोली!
प्रीत की डोरी कितनी कोमल
इसको भी जान लिया मैंने
प्रीत के मोती कितने अनमोल
इसको भी मान लिया मैंने!
प्रीत की माला रखी सहेजकर
उर के कंचन कोष में
मणियों में संदेश है अंकित
रिक्तता नहीं प्रीत के राहत कोष में!
समय! तुमसे क्या करूँ विनती
तुम तो संदेश सुनाते चलते रहने का
पल-पल, छिन-छिन कहते जाते
बीता न कभी वापस आने का!
पल-पल कटते जीवन में
पल-पल सौंदर्य रहे सुशोभित
क्षण-क्षण क्षय होते जग में
सद्भावना संदेश करें संप्रेषित!
अनगिन घड़ियों में एक घड़ी
संदेसा लाएगी अंतिम श्वास का
इस परम सत्य से अनभिज्ञ नहीं
भरोसा नहीं अगले निश्वास का!
समय! संदेसा तुम पहुँचा देना
मेरे प्रियतम, प्रियरूप, प्रियवर को
जीवन दीप की लौ रही समर्पित
महामिलन विराट ज्योतीश्वर से हो!

रहे स्मरण प्रतिपल प्रभु का
जिसका संदेसा सृष्टि सुनाती
सुख-दुख के संदेसे समरूप
मैं तो प्रभुवर जी के रंगराती।







No comments:

Post a Comment