Sunday, November 21, 2010

गंगाजी के तट पर

गंगाजी के तट पर

गंगाजी के तट पर आस्था का संगम
गंगाजी के तट पर भक्ति की सरगम
गंगाजी के तट पर शिव संकीर्तन
गंगाजी के तट पर महिमा गायन
गंगाजी के तट पर सत्संग-गोष्ठी
गंगाजी के तट पर पंच परमेष्ठी
गंगाजी के तट पर उज्ज्वल रेती
गंगाजी के तट पर भाव के मोती
गंगाजी के तट पर शीत समीरण
गंगाजी के तट पे मिटे उत्पीड़न
गंगाजी के तट पर संध्या आरती
गंगाजी की महिमा गाये सरस्वती
गंगाजी की लहरों पे दीपक तिरते
गागाजी के  तट पर संत विचरते
गंगा देवनदी, जाह्नवी, सुर सरिता
लहर-लहर पर श्लोक और कविता
गंगाजी के तट पर लगते मेले
गंगाजी के तट पर दुनिया भूले
गंगाजी के तट की छवि निराली
गंगाजी के तट पे सदा हरियाली
गंगाजी की लहरें प्राण-प्रदायिनी
गंगा पतित पावनी, मोक्षदायिनी
गंगाजी के तट पर तीरथ सारे
गंगाजी के तट पे मनोरथ पूरे
हो भव्य प्रयास भागीरथ जैसा
उतरे संकल्प  सुरसरि सरीखा
सींचे सकल भुवन को गंगा
समाये हृदय कलश में गंगा
पावन दर्पण गंगा दर्शन
गंगा करती शीतल तन-मन
कानों में गंगा की कल-कल ध्वनि हो
नयनों में गंगा की छल-छल छवि हो
उर में हो गंगा की स्तुति स्मरण
मुख से गंगाजी की जय उच्चारण
पुण्य सलिला गंगा की धारा
मिटाती कष्ट कलुष ये सारा
अंत समय मिले गंगा वारि
गंगा मैया मोहि लेना उबारि ।


Thursday, November 18, 2010

मैंने प्यार किया

मैंने प्यार किया
मैंने प्यार किया
शिशु की कोमल सुस्कान से
निर्मल निष्पाप दृष्टि ने
मिटा दी थकान तन-मन की!
मैंने प्यार किया
वात्सल्यमयी माँ के आँचल से
जिसके नीचे निश्चिंत सदा ही
सारी खुशियाँ बचपन की!
मैंने प्यार किया
फूल की कोमन पंखुरियों से
जिनके संस्पर्श से जागी
नूतन चेतना जीवन की!
मैंने प्यार किया
नभ पर उड़ते जलधर से
जिसने बरसाकर जल की बूँदें
प्यास बुझा दी धरणी की!
मैंने प्यार किया
ऊँचे शैल शिखर से
प्रेरणा स्त्रोत रहा सदा जो
राह दिखाई उन्नयन की!
मैंने प्यार किया
सहृदय मित्रों से
जिन्होंने सुख-दुख में साथ दिया
निभाई आन मित्रता की!
मैंने प्यार किया
श्रेष्ठतम शब्द संपदा से
जिसने विचारों को नई दिशा दी
समझा दी बात संचेतन की!
मैंने प्यार किया
संतों की शीतल वाणी से
जिनके सान्निध्य से मिलती
सुरभि और शीतलता चंदन की!
मैंने प्यार किया
आत्म-तत्व के वैभव से
जिसने अनश्वर का भेद बताया
छवि दिखाई संपूरन की!
मैंने प्यार किया
प्रेम की स्निग्ध भावनाओं से
जिसने जन-जन को मीत बनाया
लागी लगन प्रिय से मिलन की!




संदेसा तेरे नाम का

संदेसा तेरे नाम का

संदेसा तेरे नाम का
जब भी आया मेरे द्वारे
खिल-खिल उठी मन की कली
लाज से हुये नयन रतनारे
लेकर जो आया संदेसा
लगा उस पल बड़ा ही अपना
उस पल की अनुभूति ऐसी
सच हो जैसे भोर का सपना!
विरह की ज्वाला होती कैसी
कैसे मैं तुमको समझाऊँ
कितने ताप सहे उर ने
शायद किसी से कह न पाऊँ!
संदेश के एक-एक अक्षर में
होती तुम्हारी छवि उजागर
खो जाती मैं शब्द-पाश में
सारे जग को विसराकर!
प्रतीक्षा की घड़ियों में प्रियवर
रही प्रतीक्षा सुधि लेने की
संदेसे की भी बाट जोहती
प्रीत की रीत है केवल देने की!
देहरी पर आस का दीप जलाए
सजाती भावनाओं की रंगोली
हर आहट पर कान लगाए
सुनती सखियों की चुहल, ठिठोली!
प्रीत की डोरी कितनी कोमल
इसको भी जान लिया मैंने
प्रीत के मोती कितने अनमोल
इसको भी मान लिया मैंने!
प्रीत की माला रखी सहेजकर
उर के कंचन कोष में
मणियों में संदेश है अंकित
रिक्तता नहीं प्रीत के राहत कोष में!
समय! तुमसे क्या करूँ विनती
तुम तो संदेश सुनाते चलते रहने का
पल-पल, छिन-छिन कहते जाते
बीता न कभी वापस आने का!
पल-पल कटते जीवन में
पल-पल सौंदर्य रहे सुशोभित
क्षण-क्षण क्षय होते जग में
सद्भावना संदेश करें संप्रेषित!
अनगिन घड़ियों में एक घड़ी
संदेसा लाएगी अंतिम श्वास का
इस परम सत्य से अनभिज्ञ नहीं
भरोसा नहीं अगले निश्वास का!
समय! संदेसा तुम पहुँचा देना
मेरे प्रियतम, प्रियरूप, प्रियवर को
जीवन दीप की लौ रही समर्पित
महामिलन विराट ज्योतीश्वर से हो!

रहे स्मरण प्रतिपल प्रभु का
जिसका संदेसा सृष्टि सुनाती
सुख-दुख के संदेसे समरूप
मैं तो प्रभुवर जी के रंगराती।